तरक्की की सीढ़ी और अपने ही लोग
कहानी की शुरुआत दफ़्तर के गलियारों में एक अजीब सी खामोशी होती है। लोग आपको मुस्कुराकर मिलते हैं, तारीफ़ करते हैं, पीठ थपथपाते हैं… लेकिन कभी-कभी यही हाथ, पीठ थपथपाने के बजाय, धीरे से आपको धक्का भी दे देते हैं—नीचे गिराने के लिए। > “हर चेहरा आईना नहीं होता, और हर मुस्कान अपनापन नहीं होती।” यह कहानी पुरानी है, लेकिन किरदार आज भी हमारे आस-पास मौजूद हैं। भरोसे से ईर्ष्या तक एक साहब थे, बड़े नेकदिल, मददगार। उन्होंने अपने एक जान-पहचान के व्यक्ति को अपने दफ़्तर में नौकरी दिलवाई। शुरुआत में दोनों के बीच भरोसे की मजबूत डोर थी। नया कर्मचारी मेहनती था—देर रात तक बैठकर फ़ाइलें निपटाता, नए-नए आइडिया देता। जल्दी ही उसकी पहचान कंपनी में बनने लगी, लोग उसका नाम लेने लगे। लेकिन जहाँ मेहनत होती है, वहाँ ईर्ष्या के साए भी चुपचाप मंडराने लगते हैं। वो व्यक्ति, जिसने नौकरी दिलाई थी, अब सोचने लगा— "कहीं ये मुझसे आगे न निकल जाए?" "कहीं लोग इसे मुझसे ज़्यादा महत्व न देने लगें?" और फिर शुरू हुई अदृश्य लड़ाई—मीठे शब्दों में लिपटी चालें, मुस्कान के पीछे छुपा ज़हर। > “कभी-कभी सबसे गहरी च...