जब रोज़गार छूटता है, तो सिर्फ जेब नहीं खाली होती…”

 



ज़िंदगी का सफ़र आसान नहीं।
कभी लगता है कि सब कुछ अपने काबू में है—सुबह की धूप, जेब में सैलरी, रिश्तों में मिठास और सपनों में रंग।
और फिर एक दिन, जैसे किसी ने अचानक ब्रेक लगा दिया हो… सब कुछ बदलने लगता है।

यह कहानी एक ऐसे नौजवान की है, जिसकी मेहनत, ईमानदारी और साथ निभाने की आदत उसके सबसे बड़े गुण थे।
पर वक्त बदला, और उसी वक्त ने दिखा दिया कि अच्छे दिनों के साथी हर वक्त के साथी नहीं होते।


नौकरी का जाना—सिर्फ एक काग़ज़ नहीं, पूरी पहचान का टूटना

नौकरी छूटना सिर्फ एक काग़ज़ के खत्म होने का नाम नहीं है।
यह उस इंसान की पहचान, आत्मविश्वास और सपनों पर एक अदृश्य हथौड़ा है।
उसके घर के चारों दीवार अब पहले जैसी नहीं रहीं।
माँ-बाप की आँखों में अब चिंता कम, सवाल ज़्यादा हैं।
भाई के शब्द अब सलाह नहीं, तानों जैसे लगते हैं।

> “जिसे अपना घर समझा,
वहीं सवालों का दरबार बन गया,
और मैं मुल्ज़िम ठहराया गया।”


मोहब्बत का बदला मौसम

उसकी ज़िंदगी में एक रिश्ता था—जिसके लिए उसने बुरे वक्त में दिन-रात एक किया।
उसके आँसू पोंछे, मुश्किलें हल कीं, और भरोसा दिलाया कि चाहे दुनिया बदल जाए, वह नहीं बदलेगा।
लेकिन अब, जब उसके अपने कदम लड़खड़ा रहे हैं, वही रिश्ता धीरे-धीरे दूर जा रहा है।
फ़ोन करो तो जवाब मिलता है—
“मेहमान आए हैं”,
“अभी किसी से बात कर रही हूँ”,
या “बाद में बात करते हैं”…
यह सिर्फ व्यस्तता नहीं, यह एक अदृश्य दूरी है, जो हर दिन और बढ़ रही है।

> “वक़्त तो सबके पास होता है,
बस चाहने का इरादा होना चाहिए,
और चाहत, मजबूरियों में भी रास्ता ढूंढ लेती है।”

मदद का हिसाब—हमेशा एकतरफ़ा

वह नौजवान वही है, जिसने अपने आसपास के लोगों के लिए कभी सोचा नहीं कि उसे क्या मिलेगा।
कभी दोस्त की फीस भरी, कभी भाई का काम किया, कभी किसी के बुरे वक्त में हौसला दिया।
पर अब, जब उसका वक्त बदला, तो किसी ने आगे बढ़कर यह तक नहीं कहा—
"चिंता मत करो, मैं हूँ तुम्हारे साथ।"

> “जिसे कांटे से बचाया,
वही फूलों के बीच छोड़ गया,
और मैं बिना छाँव के धूप में रह गया।”


गलतफ़हमियों का बोझ

घर वालों को लगता है कि वह नौकरी करने में ढीला है—कभी करता है, कभी छोड़ देता है।
कोई यह नहीं समझता कि कई बार नौकरी छोड़ना मजबूरी होती है।
कई जगह, काम करने के बाद भी उतने दिन का मेहनताना नहीं मिलता जितना होना चाहिए।
लोग कहते हैं कि वह उस पैसे का ‘गलत इस्तेमाल’ करता है, जबकि सच्चाई यह है कि वह पैसा ही कभी पूरा नहीं मिलता।

> “रोटी गिनी जाती है, भूख नहीं;
और मेहनत तौली जाती है, हक़ नहीं।”


मन की स्थिति—क़ैद में भी बेगानी आज़ादी

अब वह न घर में चैन पा सकता है, न बाहर।
बात करने का मन नहीं करता, और अगर चुप रहे तो लोग कहते हैं—"तुम बदल गए हो।"
असल में, वह बदल नहीं गया, बस टूट गया है।
अंदर ही अंदर उसकी आत्मा जैसे थक चुकी है।

> “कुछ चीखें कानों तक नहीं पहुँचतीं,
क्योंकि वे दिल के अंदर ही दम तोड़ देती हैं।”



समाज के लिए आईना

हमारे समाज में बेरोज़गारी को सिर्फ पैसों से जोड़ा जाता है।
लोग भूल जाते हैं कि यह एक भावनात्मक और मानसिक आपदा भी है।
यह किसी इंसान के सपनों को, उसकी हिम्मत को और जीने की वजह को चुरा लेती है।

> “धूप में तो हर कोई साथ चलता है,
पर बारिश में जो छाता बन जाए,
वही अपना होता है।”

आख़िरी सोच

यह कहानी सिर्फ एक नौजवान की नहीं, बल्कि उन हज़ारों चेहरों की है, जो हंसते हैं लेकिन अंदर से टूट चुके हैं।
हाँ, आज वह हार मान चुका सा दिखता है, लेकिन यह उसकी मंज़िल नहीं—यह सिर्फ एक पड़ाव है।
वह फिर उठेगा, और इस बार पहले से ज़्यादा मज़बूती के साथ।
वह उन सबको दिखाएगा, जो उसे कमज़ोर समझ बैठे थे, कि असली ताक़त क्या होती है।

> “गिरा हूँ तो क्या हुआ,
उड़ना मुझे अब भी आता है,
और इस बार पंख भी मेरे होंगे,
और आसमान भी।”

वक़्त का पहिया हमेशा घूमता है—आज उसके खिलाफ़ है, कल उसके साथ होगा।
और जब वह दिन आएगा, तो वही लोग जो आज सवाल कर रहे हैं, कल उसकी कामयाबी पर गर्व करेंगे।

> “मैं लौटूंगा…
अपनी हार को जीत में बदलकर,
और तब वक़्त भी मुझसे नज़रें नहीं मिला पाएगा।”

✍️ लेखक: Viva Goswami


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