तरक्की की सीढ़ी और अपने ही लोग

 



कहानी की शुरुआत

दफ़्तर के गलियारों में एक अजीब सी खामोशी होती है।
लोग आपको मुस्कुराकर मिलते हैं, तारीफ़ करते हैं, पीठ थपथपाते हैं… लेकिन कभी-कभी यही हाथ, पीठ थपथपाने के बजाय, धीरे से आपको धक्का भी दे देते हैं—नीचे गिराने के लिए।

> “हर चेहरा आईना नहीं होता,
और हर मुस्कान अपनापन नहीं होती।”

यह कहानी पुरानी है, लेकिन किरदार आज भी हमारे आस-पास मौजूद हैं।

भरोसे से ईर्ष्या तक

एक साहब थे, बड़े नेकदिल, मददगार।
उन्होंने अपने एक जान-पहचान के व्यक्ति को अपने दफ़्तर में नौकरी दिलवाई।
शुरुआत में दोनों के बीच भरोसे की मजबूत डोर थी।
नया कर्मचारी मेहनती था—देर रात तक बैठकर फ़ाइलें निपटाता, नए-नए आइडिया देता।
जल्दी ही उसकी पहचान कंपनी में बनने लगी, लोग उसका नाम लेने लगे।

लेकिन जहाँ मेहनत होती है, वहाँ ईर्ष्या के साए भी चुपचाप मंडराने लगते हैं।
वो व्यक्ति, जिसने नौकरी दिलाई थी, अब सोचने लगा—
"कहीं ये मुझसे आगे न निकल जाए?"
"कहीं लोग इसे मुझसे ज़्यादा महत्व न देने लगें?"

और फिर शुरू हुई अदृश्य लड़ाई—मीठे शब्दों में लिपटी चालें, मुस्कान के पीछे छुपा ज़हर।

> “कभी-कभी सबसे गहरी चोट,
वही लोग देते हैं जो आपके सबसे क़रीब होते हैं।”


अंजाम

कुछ महीनों बाद, अचानक खबर आई उस मेहनती कर्मचारी को बिना किसी ठोस कारण के नौकरी से निकाल दिया गया।
और सबसे हैरानी की बात?
उसकी कुर्सी पर बैठा कौन?
वही शख्स, जिसने उसे पहली बार दफ़्तर में कदम रखने का मौका दिया था।

दफ़्तर से समाज तक

ये सिर्फ़ एक दफ़्तर की कहानी नहीं, ये आज के कई कंपनियों, संस्थानों और समाज का आईना है।
कितनी बार देखा होगा आपने—कोई मेहनत से आगे बढ़ता है, और लोग उसके लिए सीढ़ी बनने के बजाय, उसके पैरों के नीचे से पायदान खींच लेते हैं।

कारण?

असुरक्षा (Insecurity): डर कि कहीं वो मुझसे बेहतर साबित न हो जाए।

अहंकार (Ego): जिसे मैंने ऊपर लाया, वो मुझसे ऊंचा कैसे हो सकता है?

ईर्ष्या (Jealousy): उसकी तारीफ़ क्यों हो रही है? ये चमक मेरी क्यों नहीं?


> “सूरज की रोशनी सबको बराबर मिलती है,
पर कुछ लोग दूसरों की धूप देखकर जल जाते हैं।”


असलियत

किसी की तरक्की आपकी कीमत कम नहीं करती।
किसी का नाम चमकने से आपकी पहचान धुंधली नहीं होती।
हम भूल जाते हैं कि अगर हमारी टीम का कोई सदस्य सफल होता है, तो उसका श्रेय हमारी टीम को भी जाता है।
पर ईर्ष्या की आग में यह सोच जलकर राख हो जाती है।

समाज का आईना

ये सिर्फ़ ऑफिस तक सीमित नहीं है।
पड़ोसी का बेटा आगे निकला तो जलन, रिश्तेदार का बिज़नेस बढ़ा तो कुंठा, दोस्त का नाम बना तो मन में कसक।
हम दूसरों की सफलता में अपनी हार ढूंढने लगते हैं।
और फिर वही कहावत सच हो जाती है—
"हम अपने लोगों को ऊंचा उठते देखना पसंद करते हैं, बस इतना नहीं कि वो हमसे ऊपर निकल जाएं।"

> “किसी और की उड़ान देखकर परेशान मत हो,
तुम्हारे आसमान में भी जगह कम नहीं है।”


समाधान

1. सोच बदलें: तरक्की को प्रतिस्पर्धा नहीं, प्रेरणा की तरह देखें।


2. सहयोग करें: जिसे ऊपर चढ़ाया है, उसे रोकने की जगह आगे बढ़ने दें।


3. श्रेय बांटें: किसी की सफलता में अपनी भूमिका को गर्व से स्वीकारें।

अंतिम संदेश

दुनिया में जगह कम नहीं है, बस दिल थोड़े तंग हो गए हैं।
अगर हम किसी का हाथ पकड़कर ऊपर ले जा सकते हैं, तो उसे गिराने के बजाय और ऊपर चढ़ाने में भी उतनी ही ताकत लगा सकते हैं।
याद रखिए—सीढ़ियां तब तक मजबूत रहती हैं, जब तक हम उन्हें टूटने नहीं देते।

> “दूसरों को गिराकर जो ऊँचाई मिलती है,
वो ऊँचाई नहीं, बस एक छोटा सा अहंकार का टीला होता है।”

✍️ लेखक: Viva Goswami


Comments

Popular posts from this blog

सादगी से होने वाले सामुहिक विवाह का चलन बढ़ाया जाएगा : भाई मेहरबान कुरैशी

गाजीपुर मुर्गा मछली मंडी के चेयरमैन भाई मेहरबान कुरैशी के प्रयासों से व्यापारियों को मिली एटीएम सुविधा

डॉ0 कलाम ने देश का नाम विश्व में रोशन किया : फिरोज अंसारी एडवोकेट